जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

मुझे थाम लेना

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 डॉ मृदुल कीर्ति

महाकाल से भी प्रबल कामनाएं,
हैं विकराल भीषण अहम् की हवाएं,
ये पर्वत हिमानी हैं, ममता के आँचल,
नहीं तृप्त होते हैं तृष्णा के बादल,
ये भीषण बबंडर है कुंठा की दल-दल,
मुझे थाम लो इसमें धंसने से पहले,
मुझे थाम लेना बिखरने से पहले।

ये स्वर्णिम हिरण के प्रलोभन हैं जब तक
ये लक्ष्मण की रेखाएँ लाँघेंगीं तब तक
भ्रमित राम दौड़ेगे स्वर्णिम मृगी तक
प्रलोभित है जग सारा माया ठगी तक
प्रलोभन की दल दल में मैं धँस न ज़ाऊँ
मुझे थाम लो इसमें धँसने से पहले
मुझे थाम लेना बिखरने से पहले।

-डॉ मृदुल कीर्ति
 ऑस्ट्रेलिया

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